Gurjar-Pratihar Rajvansh Itihas In Rajasthan

 

Gurjar-prtihar rajvansh

  • गुर्जर-प्रतिहार वंश का अधिवासन काल गुहिल वंश की तरह बहुत प्राचीन है। 
  • गुर्जर प्रतिहार आरंभ में कहाँ रहते थे और कहाँ । आए यह कहना कठिन हैं। इनका सर्वाधिक उल्लेख राजस्थान में मिलता है, इसलिए संभवतः इनका सर्वप्रथम राज्य राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र में ही रहा होगा। 
  • जोधपुर के शिलालेखों से पता चलता है कि गुर्जर-प्रतिहारों का अधिवासन मारवाड़ में लगभग छठी शताब्दी के द्वितीय चरण में हो चुका था। 
  • उस समय राजस्थान नाम से कोई प्रांत नहीं था और इसके पश्चिम भाग को 'गुर्जरात्र' कहते थे। ऐसा भी माना जाता है कि प्रतिहारों का प्रारंभिक शासन गुजरात में रहा है तथा गुजरात में रहने के कारण ये शासक गुर्जर-प्रतिहार कहलाये। 
  • उद्योतन सूरि ने गुर्जरों की मातृभाषा गुर्जर अपभ्रंश और संस्कृत बताई है। 
  • सोमदेव ने 959 ई. में 'वंशस्तिलक चप्पू' में गुर्जर सेना का उल्लेख 'प्रांतीय सेना' के रूप में किया है।
Gurjar-Pratihar Rajvansh Itihas In Rajasthan



गुर्जर-प्रतिहार दो शब्दों के योग से बना है- गुर्जर और प्रतिहार

  • गुर्जर शब्द मरूप्रदेश का छोटा-सा भाग 'गुर्जरात्र प्रदेश' की ओर संकेत करता है, जबकि प्रतिहार एक जाति (पद) की ओर संकेत करता है, जो राजा के महलों के बाहर रक्षक का कार्य करती थी।
  •  इस प्रतिहार जाति द्वारा गुर्जरात्र प्रदेश शासित होने के कारण गुर्जर प्रतिहार वंश अस्तित्त्व में आया। 
  • गुर्जर जाति का सर्वप्रथम उल्लेख चालुक्य नरेश पुल्केशियन द्वितीय के 'एहोल अभिलेख' में मिलता है। 
  • इस लेख के रचियता रविकीर्ति जैन थे।
  • इतिहासकार डॉ. आर.सी. मजूमदार बताते हैं कि प्रतिहार शब्द का प्रयोग मण्डोर के प्रतिहार जाति के लिए हुआ जो अपने आप को भगवान राम के भाई लक्ष्मण के वंशज मानते थे। 
  • क्योंकि लक्ष्मण भगवान राम की सेवा में एक प्रतिहार के रूप में काम करता था और ऐसे ही प्रतिहरों द्वारा गुर्जरात्र प्रदेश में राज्य करने के कारण 'गुर्जर-प्रतिहार' कहलाए। इन्हें अरबी यात्री सुलेमान व अलमसूदी ने 'जुर्ज' कहा है।
  • राजस्थान में प्रतिहारों का आगमन लगभग छठी शताब्दी में मारवाड़ क्षेत्र में हुआ, लेकिन प्रतिहारों का स्वतंत्र वर्चस्व 8वीं शताब्दी से 10वीं शताब्दी तक रहा।
  • चीनी यात्री हेनसांग (युवानच्यांग) ने अपनी पुस्तक 'सी यूकी' में गुर्जर प्रतिहारों की प्रारंभिक राजधानी 'पीलोमोलो' (भीनमाल) को बताया है, उन्होंने इस क्षेत्र की यात्रा भी की थी।
  • बाणभट्ट ने भी अपनी पुस्तक 'हर्षचरित' में गुर्जरों का वर्णन किया।
  • गुर्जर प्रतिहार ' चामुण्डा माता' (जोधपुर) को अपनी कुलदेवी के रूप में पूजा करते थे।
  • मुहणौत नैणसी ने प्रतिहारों की 26 शाखाओं का वर्णन अपने ग्रंथों में किया है। 
  • इनमें मण्डोर, जालौर, कन्नौज, उज्जैन, भड़ोंच राजोरगढ़ प्रसिद्ध शाखाएँ हैं। 
  • इनमें से राजपूताना में दो शाखाएँ प्रमुख थी - मण्डोर एवं जालौर । मण्डोर शाखा प्रतिहारों की राजस्थान में सबसे प्राचीन शाखा थी, अतः यहाँ के गुर्जर प्रतिहार सबसे प्राचीन थे ।

मण्डोर के प्रतिहार


प्रतिहारों की 26 शाखाओं में मण्डोर के प्रतिहार सबसे प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण है। उनके बारे में जानकारी जोधपुर का एक शिलालेख और दो घटियाला के शिलालेखों (पहला 837 ई. का और दूसरा 861 ई. का) से मिलती है। इनके अनुसार मण्डोर के प्रतिहारों की वंशावली हरिशचन्द्र से शुरू होती है।

हरिशचन्द्र


शिलालेखों के अनुसार छठी शताब्दी में हरिशचन्द्र ( रोहिलद्धि) नाम का एक राजा था, जो वेद और शास्त्रों का अर्थ जानने में निपुण था। 
  • बाउक के जोधपुर अभिलेख में हरिशचन्द्र को विप्र कहा है, जिसका अर्थ ज्ञानी होता है। 
  • इसलिए उसे 'प्रतिहारों का गुरु' भी कहा जाता हैं। उसे गुर्जर प्रतिहारों का आदि पुरुष/ मूल पुरूष' भी कहते है । 
  • उसके दो पत्नी थी एक ब्राह्मण तो दूसरी क्षत्रिय कुल की थी। उनमें से ब्राह्मण स्त्री का नाम अज्ञात है और क्षत्रिय स्त्री का नाम भद्रा था। 
  • ब्राह्मण वंश की स्त्री से उत्पन्न संतान 'ब्राह्मण प्रतिहार' और क्षत्रिय वंश की स्त्री से उत्पन्न संतान ' क्षत्रिय प्रतिहार' के नाम से जाने जाते थे। 
  • क्षत्रिय पत्नी भद्रा के चार पुत्र भोगभट्ट, कदक, रज्जिल एवं दह ( दद्द ) के नाम से प्रसिद्ध हुये। इन चारों ने मिलकर माण्डव्यपुर (मंडोर) को जीतकर वहाँ महल का निर्माण करवाया। 
  • वास्तविकता में हरिशचन्द्र के पुत्र ही गुर्जर-प्रतिहार वंश के संस्थापक हैं। 
  • इन पुत्रों में से रज्जिल का मण्डोर की गद्दी पर राज्याभिषेक हुआ। इसलिए मण्डोर के प्रतिहारों की वंशावली रज्जिल से आरंभ होती है। 
  • रज्जिल का पुत्र नरभट्ट था, जिसे रण कुशलता के कारण शिलालेखों में 'पिल्लापल्ली' (गुरु व ब्राह्मणों का संरक्षणकर्ता) कहा गया है। 
  • नरभट्ट का पुत्र नागभट्ट प्रथम (नाहड़) इस वंश का शक्तिशाली शासक हुआ। 
  • प्रतिहारों में भट्ट का अर्थ 'योद्धा' होता था।

नागभट्ट प्रथम :- (730-756 ई.) 


  • मण्डोर शाखा में रज्जिल का पोता नागभट्ट प्रथम बड़ा प्रतापी शासक हुआ। 
  • नागभट्ट प्रथम को अभिलेखों में 'मेघनाद के युद्ध का अवरोधक तथा इन्द्र के गर्व का नाश करने वाला, राम के प्रतिहार, क्षत्रिय ब्राह्मण व प्रतिहार साम्राज्य का वास्तविक 'संस्थापक' आदि नामों से भी जाना जाता है । 
  • मिहिरभोज को ग्वालियर प्रशस्ति में उसे मलेच्छों का नाशक कहा गया है। 
  • नागभट्ट प्रथम ने देखा कि मण्डोर में प्रतिहारों की स्थिति सुदृढ़ हो गई है तो उसने शासकीय सुविधा के लिए अपनी राजधानी को मण्डोर से मेड़ता स्थापित कर ली । 
  • मेड़ता केन्द्रीय स्थिति के लिए अधिक उपयुक्त था । ऐसा नहीं है कि इसके बाद मण्डोर का महत्त्व कम हुआ हो, क्योंकि नागभट्ट प्रथम के निधन के बाद उसका पुत्र तात ने जीवन को क्षण भंगुर समझते हुए अपना राज्य कार्य परित्याग कर दिया। 
  • तात ने अपना पैतृक राज्य अपना भ्राता भोज को सौंपकर मण्डोर के पास स्थित प्राकृतिक स्थल पर जाकर एक सन्यासी का जीवन व्यतीत करने लगा। 
  • महाराजा भोज के बाद तात का पुत्र यशोवर्धन राजा बना। इस घटना के बाद नागभट्ट प्रथम के अन्य उत्तराधिकारियों के संन्दर्भ में कोई जानकारी नहीं मिलती है । 
  • इस वंश में आगे चल कर ‘शीलुक' शासक हुआ, जो राजा यशोवर्धन के पुत्र चंदुक का पुत्र था । 
  • शीलुक ने वल्ल देश में वल्ल मंडल के शासक भाटी देवराज को युद्ध में पराजित करके उसके छत्र का स्वामी बना और अपने देश की सीमा को बढ़ाया । शीलुक का पुत्र झोट व इसका पुत्र भिलादित्य व इसका पुत्र राजा कक्क हुआ । 
  • इस कक्क के दो रानियाँ थी, जिनमें से पद्मिनी नामक रानी ने बाउक (बोक) व दुर्लभदेवी नामक रानी ने कक्कुक नामक पुत्र को जन्म दिया । 
  • इनमें से अपने पिता के निधन के बाद 'बाउक' राजा बना। इन्होंने ‘भूअकूप का युद्ध' में अपने शत्रु मयूर और उसके सैनिकों को बुरी तरह पराजित किया था। बाउक ने 837 ई. में एक प्रशस्ति लिखवाई जिसमें अपने वंश का वर्णन अंकित करवाया।
  •  इस प्रशस्ति को उन्होंने मण्डोर के एक विष्णु मंदिर में लगवाई। लेकिन इस प्रशस्ति को किसी ने हटवाकर बाद में जोधपुर शहर के कोट में लगवा दी थी ।
  • बाउक के निधन के बाद उसका सौतेला भाई कक्कुक मण्डोर के प्रतिहारों का नेता बना । 
  • कक्कुक ने 861 ई. में दो शिलालेख उत्कीर्ण करवाये, जिन्हें घटियाला के शिलालेख के नाम से जाना जाता हैं। 
  • इन शिलालेखों में से एक शिलालेख का अन्तिम श्लोक स्वयं कक्कुक ने रचा था। उसने मण्डोर और रोहिंसकूप नामक स्थान पर विजय स्तंभ बनवाए । 
  • कक्कुक के उत्तराधिकारियों के बारे में नाममात्र की भी जानकारी उपलब्ध नहीं हो पाती ।
  • सहजपाल चौहान के 1145 ई. का एक लेख मण्डोर में मिला है। इस लेख के अनुसार 12वीं शताब्दी के मध्यकाल तक मण्डोर पर प्रतिहारों के स्थान पर चौहानों का प्रभुत्व स्थापित हो गया था ।
  • उसके बाद मण्डोर शाखा के प्रतिहार छोटे-मोटे सामंत बनकर रहने लगे।
  • इन्दा शाखा के प्रतिहारों ने प्रतिहार हम्मीर से तंग आकर या आपसी कलह से परेशान होकर मण्डोर का गढ़ मारवाड़ के चूड़ा के राठौड़ को 1395 ई. में दहेज में दे दिया था। इस घटना के साथ ही मण्डोर के प्रतिहारों का राजनीतिक विस्तार का इतिहास समाप्त हो गया।
Gurjar-Pratihar Rajvansh Itihas In Rajasthan


जालौर, उज्जैन व कन्नौज के प्रतिहार


ऐसा माना जाता है कि मण्डोर के प्रतिहार हरिशचन्द्र के समय से ही उनके वंशजों ने अपनी सुविधा अनुसार मण्डोर के अलावा गुजरात, मालवा, कन्नौज व उज्जैन आदि क्षेत्रों में बसना शुरू कर दिया था। 
  • उन्हें जैस-जैसे अवसर मिला, वैसे-वैसे अपने राज्य भी स्थापित करते चले गये । 
  • अतः इस शाखा के प्रतिहारों का उद्भव मण्डोर से ही हुआ है। इस शाखा के प्रतिहरों को 'रघुवंशी प्रतिहार' कहते हैं। 
  • इन प्रतिहारों ने सर्वप्रथम चावड़ों से भीनमाल का राज्य छीना और उसके बाद आबू, जालौर आदि स्थानों पर अधिकार करके 'उज्जैन' को अपनी राजधानी बनाई । 
  • इन शासकों ने कन्नौज को भी अपने अधिकार में ले लिया और अपनी राजधानी 'कन्नौज' में स्थापित की। इस शाखा की राजधानियों के संबंध में मतभेद हैं । 
  • दशरथ शर्मा, कुवलयमाला तथा अन्य स्त्रोतों के आधार पर राजधानी जालौर को मानते हैं, जबकि कुछ विद्वान राजधानी उज्जैन और कन्नौज को मानते हैं। 
  • वास्तव में तो यह है कि जितने समय तक वे एक स्थान पर बने रहे उतने ही समय तक वह स्थान उनकी राजधानी के रूप में चलता रहा।

  • जालौर, उज्जैन और कन्नौज के प्रतिहारों की नामावली नागभट्ट प्रथम (730-756) से प्रारंभ होती है। 
  • इसे कन्नौज के गुर्जरप्रतिहार वंश का संस्थापक कहा जाता है। नागभट्ट प्रथम के समय सिंध की दिशा से बिलोचों तथा अरबों ने भारत पर आक्रमण किया। 
  • नागभट्ट ने न केवल मुस्लिम आक्रमण से पश्चिमी भारत की रक्षा की अपितु उनके रौंदे हुये प्रदेशों पर पुनः अधिकार किया। 
  • नागभट्ट प्रथम की चौथी पीढ़ी में वत्सराज एक शक्तिशाली शासक हुआ।

वत्सराज :- (783-795 ई.) 

 
देवराज की पत्नी भूमिका देवी के गर्भ से जन्मा वत्सराज गुर्जरप्रतिहार वंश का प्रतापी शासक हुआ। 
वत्सराज इस वंश का चौथा शासक था। उसने जो विजयी होने की बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त की थी उसे 'त्रिदलीय संघर्ष' में राष्ट्रकूट ध्रुवराज ने उसे परास्त करके समाप्त कर दी थी ।

  • उसके शासनकाल में उद्योतन सूरि नामक जैन कवि ने जालौर में 'कुवलयमाला' नामक ग्रंथ की रचना की तथा जैनाचार्य जिनसेन सूरी ने 783 ई. में 'हरिवंश पुराण' नामक ग्रंथ लिखा । 
  • इन ग्रंथों में उस समय के राजनीतिक, धार्मिक तथा सामाजिक स्थिति पर प्रकाश डाला गया है। 
  • कुवलयमाला में वत्सराज को 'रणहस्तिन' कहा गया है। मिहिर भोज की ग्वालियर प्रशस्ति में वत्सराज को 'बहुसंख्य भू-भृतों' और 'उनके शक्तिशाली सलाहकारों की गति को समाप्त करने वाला' कहा है ।

  • वत्सराज ने औसियां में महावीर स्वामी को समर्पित एक जैन मंदिर का निर्माण करवाया था, जिसे पश्चिम भारत का प्राचीनतम जैन मंदिर माना जाता है।

  • वत्सराज के शासनकाल में कन्नौज 'त्रिदलीय संघर्ष' आरंभ क्योंकि उस समय कन्नौज उत्तरी भारत का प्रमुख केंद्र हुआ था, था। 
  • उस समय कन्नौज पर 'पालवंश', दक्षिण के 'राष्ट्रकूट वंश' व 'गुर्जर-प्रतिहार वंश' तीनों की नजर थी। 
  • इन तीनों राजवंशों में एक संघर्ष हुआ, जिसे इतिहास में 'त्रिदलीय संघर्ष' के नाम से जाना जाता है । 
  • यह संघर्ष गंगा-यमुना के दोआब में हुआ था।

 त्रिदलीय या त्रिकोणात्मक संघर्ष- इस संघर्ष की शुरूआत जालौर के प्रतिहार शासक वत्सराज ने की थी । 

  • वत्सराज ने कन्नौज पर आक्रमण किया और वहाँ के राजा 'इन्द्रायुद्ध' को पराजित करके कन्नौज पर अधिकार कर लिया। वत्सराज ने कन्नौज विजय के बाद इन्द्रायुद्ध को कन्नौज में अपने अधीन सामंत बनाकर रखा था। 
  • पालवंश के धर्मराज ने इन्द्रायुद्ध के स्थान पर अपने व्यक्ति 'चक्रायुद्ध' को वहाँ नियुक्त किया। इसी कारण से वत्सराज व धर्मपाल के मध्य अपास में संघर्ष होता है, जिसमें वत्सराज की विजय होती है। द
  • क्षिण के राष्ट्रकूट वंश के राजा ध्रुवराज ने वत्सराज पर आक्रमण कर दिया। वत्सराज को ध्रुवराज के हाथों पराजित होना पड़ा, लेकिन अशान्ति के कारण ध्रुवराज को वापिस लौटना पड़ा। इस प्रकार यह त्रिदलीय संघर्ष प्रतिहार वंश (वत्सराज) पालवंश (धर्मराज) व राष्ट्रकूट वंश (ध्रुवराज) के मध्य हुआ था।

यह त्रिदलीय संघर्ष वत्सराज प्रतिहार के समय में शुरू हुआ, जिसका अंत नागभट्ट द्वितीय ने कन्नौज के राजा चक्रायुद्ध को
पराजित करके 'कन्नौज' को अपनी राजधानी बनाकर किया। वत्सराज की मृत्यु 794 या 795 ई. में होना बताया जाता है।


नागभट्ट द्वितीय :- (795-833 ई.) 


नागभट्ट द्वितीय का जन्म वत्सराज की पत्नी सुंदरदेवी के गर्भ से हुआ था, जिसे इतिहास में 'नागावलोक' भी कहते हैं।

  • उसने अपने पराक्रम से गुर्जर प्रतिहार वंश की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया । 
  • ग्वालियर प्रशस्ति तथा अन्य काव्य-ग्रंथों के आधार पर वह दक्षिणी भारत के राष्ट्रकूट वंश के साथ हुए संघर्ष में पराजित हुआ किंतु बाद में उसने राष्ट्रकूट नरेश गोविन्द तृतीय की घरेलू परिस्थितियों का लाभ उठाते हुये चक्रायुद्ध को पराजित कर कन्नौज (कान्यकुब्जे) पर अधिकार कर लिया। 
  • इस विजय के बाद कन्नौज गुर्जर-प्रतिहारों की नयी राजधानी बन गई है। 
  • गुर्जर साम्राज्य के पतन तक प्रतिहारों की राजधानी कन्नौज ही रही थी। 
  • कन्नौज का शासक चक्रायुद्ध बंगाल के शासक धर्मपाल का आशिक था । अतः धर्मपाल ने नागभट्ट से युद्ध आरंभ कर दिया।
  •  इन दोनों के मध्य भुंगेर का युद्ध' हुआ, जिसमें धर्मपाल पराजित हुआ और बंगाल भाग गया। 
  • चाकसू अभिलेख के अनुसार शंकरगण ने बंगाल नरेश को हराया और समस्त विश्व को जीतकर अपने स्वामी नागभट्ट द्वितीय को समर्पित कर दिया। 
  • दलपत विजय की रचना 'खुमाण रासो' के अनुसार नागभट्ट द्वितीय का सामंत गुहिल खुम्माण ने मुसलमानों पर विजय प्राप्त की और इस विजय के बाद नागभट्ट द्वितीय उत्तरी भारत का सबसे शक्तिशाली शासक बन गया। 
  • इस उपलक्ष्य में उसने 'परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर' की उपाधि धारण की। नागभट्ट द्वितीय ने 'बलि-प्रबंध' नामक ग्रंथ की रचना की थी।
  • नागभट्ट द्वितीय ने बुचकेला जोधपुर में 'विष्णु तथा शिव मंदिर' का निर्माण करवाया, जिसे वर्तमान में शिव-पार्वती मंदिर के नाम से जाना जाता है ।
  • चन्द्रप्रभ सूरि द्वारा रचित 'प्रभावक चरित्र' के अनुसार नागभट्ट द्वितीय ने 23 अगस्त, 833 ई. को गंगा में डूबकर समाधि ली थी । नागभट्ट द्वितीय अपने वंश के सबसे योग्य व सफल शासकों में से एक था।

रामभद्र:- (833-856 ई.) 


  • रामभद्र या रामचन्द्र का जन्म नागभट्ट द्वितीय की रानी इष्टादेवी के गर्भ से हुआ था। 
  • रामभद्र प्रतिहार को 'रामदेव' भी कहते हैं। इनके शासनकाल में इतिहास के पृष्ठों पर अपना नाम अंकित कराने लायक कोई विशेष कार्य नहीं हुआ था। 
  • इनके समय में प्रतिहार साम्राज्य के अधीन आने वाले अनेक भाग स्वतंत्र हो गये थे।

मिहिर भोज प्रथम :- (856-885 ई.)


मिहिर भोज का जन्म रामचन्द्र की पत्नी अप्पादेवी के गर्भ से हुआ था। 
  • 'बप्प भट्ट' नामक ग्रंथ के अनुसार मिहिर भोज 836 ई. में अपने पिता रामचन्द्र का वध करके राजा बना था। इसलिए मिहिर भोज को प्रतिहारों में 'पितृहंता' कहा जाता है। 
  • मिहिर भोज उत्तरी भारत में अपने समय का सबसे शक्तिशाली राजा था। 
  • इन्हें प्राचीन भारतवर्ष का महान शासक माना जाता है।
  • उसके शासनकाल में प्रतिहारों की शक्ति चरम सीमा पर थी। 
  • उसने बुंदेलखण्ड तक अपना राज्य स्थापित कर लिया था।

  • मिहिर भोज वैष्णव धर्म से जुड़े हुए थे और वह भगवान विष्णु के उपासक थे, इसलिए उसे 'आदिवराह व प्रभास पाटन' उपाधियों से सम्बोधित किया गया है। 
  • अरबी यात्री सुलेमान ने उसे 'अरबों का अमित्र तथा इस्लाम का शत्रु' के नाम से सम्बोधित किया तथा कुछ लेखों में उन्हें 'सम्पूर्ण पृथ्वी' को जीतने वाला बताया गया है। 
  • उनके समय के कुछ चाँदी व ताँबे के सिक्के मिले हैं, जिन पर 'श्रीमद आदिवराह' शब्द अंकित है। 
  • दौलतपुरा ताम्रपत्र में भोजदेव प्रथम को ‘प्रभास-सूर्य' की उपाधि दी गई है।
Gurjar-Pratihar Rajvansh Itihas In Rajasthan


  • मिहिर भोज प्रथम का व्यक्तित्व- मिहिर भोज प्रथम प्रतिहार वंश का एक शक्तिशाली शासक था, जिसकी प्रशंसा अरब यात्री सुलेमान ने भी की है। 
  • उसने अपने पिता के राज्य में खोये हुये क्षेत्रों को प्राप्त किये, तथा सैनिक बल से अपने राज्य की सीमाओं में भी वृद्धि की। 
  • उसने अपने राज्य को ठीक ढंग से संचालित करने के लिए योग्य सामंत भी नियुक्त किये थे । 
  • इस प्रकार मिहिर भोज ने एक संगठित और केन्द्रीय साम्राज्य की रचना की ।

महेन्द्रपाल प्रथम:- (885-910 ई.) 

  • मिहिरभोज के निधन के बाद उनकी पत्नी चन्द्रभट्टारिका देवी के गर्भ से जन्मा महेन्द्रपाल प्रथम राजा बना । 
  • उसके गुरु व दरबारी साहित्यकार राजशेखर ने कपूर मंजरी, काव्य मीमांसा, बाल रामायण, बाल भारत, भुवनकोशहरविलास आदि ग्रंथों की रचना की। 
  • राजशेखर ने महेन्द्रपाल प्रथम को 'निर्भय नरेश ' के नाम से सम्बोधित किया है। कवि राजशेखर ने विद्धशालभंजिका में महेन्द्रपाल को 'रघुकुल तिलक' कहा है। 
  • इनको 'रघुकुल चूडामणी, रघुग्रामणी, रघुवंश मुक्तामणि, महीशपाल, निर्भयानरेश तथा महेद्वायुध' आदि नामों से भी जाना जाता है।

भोज द्वितीय :- (910-913 ई.) 


मेहन्द्रपाल प्रथम के बाद उसका पुत्र भोज द्वितीय (राणी महादेवी का पुत्र) राजा बना, लेकिन 2-3 वर्षो के बाद ही उसके सौतेला भाई महिपाल प्रथम ने उसका राज्य छीन लिया।

महिपाल प्रथम:- (914-943 ई.)


महिपाल प्रथम को इतिहास में आर्यावर्त का महाराजाधिराजरघुकुल मुकुटमणि, विनायकपाल एवं हेरम्भपाल' के नामों से भी जाना जाता है। 
खजुराहो अभिलेख में महिपाल का नाम 'क्षितिपाल देव' बताया है। इनके शासनकाल से ही प्रतिहारों का पतन शुरू होता है। 
महिपाल प्रथम के समय अरब यात्री 'अलमसूदी' उसके राज्य में यात्रा पर आया था।

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गुर्जर प्रतिहार पतन की ओर

  • महीपाल प्रथम के बाद विनायकपाल देव प्रथम शासक बना, जिनके समय में हरिसेन ने 'वृहत कथाकोष' नामक ग्रंथ की रचना की । 
  • विनायकपाल देव के बाद उनका पुत्र महेन्द्रपाल द्वितीय गद्दी पर बैठा, जिसके बाद देवपाल, विनायकपाल द्वितीय, महिपाल द्वितीय व विजयपाल गुर्जर सिंहासन पर बैठे। 
  • विजयपाल देव को राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय ने पराजित किया था। उसके बाद इस वंश में राज्यपाल देव नामक एक राजा हुआ, जिसके समय में महमूद गजनवी ने आक्रमण किया और यह राज्यपाल कन्नौज छोड़कर भाग गया या गजनवी की अधीनता स्वीकार कर ली। 
  • बाद में कालिंजर के राजा नंदराय ने कन्नौज को घेरकर राज्यपाल देव को मार दिया। इनके समय में राजौरगढ़ के गुर्जर और शाकम्भरी के चौहान भी स्वतंत्र हो गये थे। 
  • उसके बाद उनका पुत्र त्रिलोचनपाल प्रतिहारों का शासक बना यह भी गजनवी के सामने नहीं टिक पाया। अंत में संभवतः 1093 ई. के आस-पास यशपाल प्रतिहार के समय चन्द्रदेव गहड़वाल ने प्रतिहरों से कन्नौज छीनकर उसके स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व को समाप्त कर दिया तथा कन्नौज को अपनी राजधानी बना लिया। 
  • अत: कन्नौज में प्रतिहार वंश के स्थान पर 'गहड़वाल वंश' की स्थापना हो गई। उसके बाद प्रतिहारों का वर्णन राजपूताना के अन्य वंशों के सामंतों के रूप में ही मिलता है। 
  • ऐसा भी माना जाता है कि 1200 ई. के आस-पास नाडोल के चौहान रायपाल ने प्रतिहारों से मंडोर छीन लिया था। 
  • इस समय मंडोर का शासक सहजपाल था ।

बड़गुजर भी प्रतिहारों का ही एक भाग था जिनका शासन अलवर जिले के राजगढ़, माचेड़ी एवं ढूंढाड़ क्षेत्र में था। यहाँ से उन्हें एक-एक करके कछवाहों ने भगा दिया। अलवर के राजोगढ़ अथवा राजोरगढ़ में गुर्जर महाराजाधिराज सावट का पुत्र मथनदेव राज्य करता था, जो कन्नौज के रघुवंशी प्रतिहारों का सामंत था ।

Conclusion

इस अध्याय में आप सभी साथियों को प्राचीन इतिहास के gurjar-prtihar rajvansh ke itihas के बारे में हमारे अनुभव से सरल भाषा में notes 📝 तेयार किये है, यदि आपको कोई भी समस्या हो तो आप हमारे comment box मे समस्या लिखकर भेज दे। s

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