राजपूतों की उत्पत्ति
7वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में उत्तरी भारत की शक्ति पुष्पभूति शासकों के हाथ में थी, जिनमें हर्षवर्धन प्रमुख था।
हर्षवर्धन की (648 ई.) मृत्यु के बाद भारत की राजनीतिक एकता पुनः विघटित होने लगी। भारतीय राजनीति में पुनः एक बार अंधकार छा गया। इसके बाद उत्तर भारत में अनेक छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो गए और उनमें पारस्परिक संघर्ष आरंभ हो गया।
इस युग में भारत में अनेक नये राजवंशों का अभ्युदय हुआ। इस समय में (पालों और प्रतिहारों ने शक्ति सम्पन्न होकर अपने साम्राज्य की स्थापना कर ली।
इसी प्रकार गहड़वाल वंश, चन्देल वंश, चालुक्य वंश आदि का उत्थान हुआ। मालवा में प्रतिहारों की शक्ति नष्ट होने पर उसका स्थान परमार शक्ति ने लिया । बंगाल में आसाम के राजा भास्करवर्मन की मृत्यु के बाद सम्पूर्ण बंगाल में अराजकता फैल गई।
इस अराजकतापूर्ण स्थिति का लाभ उठाते हुए पाल-राजवंश ने बंगाल में अपनी सत्ता स्थापित कर ली। पाल राजवंश की शक्ति क्षीण होने पर यहाँ पर सेन वंश का प्रभुत्व स्थापित हो गया।
इसी काल में गुजरात, पंजाब तथा गंगा-यमुना के मैदानी भाग से कई समुदाय राजस्थान में आये और उन्होंने भी यहीं के अधिवासियों के सहयोग से अपनी सत्ता स्थापन करने में सफलता प्राप्त की।
इस प्रकार इस युग में भारत में जो नये राजवंशों का अभ्युदय हुआ, वे राजवंश सामूहिक रूप से 'राजपूत' कहलाये।
वस्तुतः भारत का पूर्व-मध्यकालीन इतिहास इन राजपूत राजवंशों का ही इतिहास है, जो उस युग की एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन गये थे।
प्रसिद्ध इतिहासकार स्मिथ ने लिखा है कि - "वे (राजपूत) हर्ष की मृत्यु के बाद से उत्तरी भारत पर मुसलमानों के आधिपत्य तक इतने प्रभावशाली हो गये थे।
सातवीं शताब्दी के मध्य से बारहवीं शताब्दी की समाप्ति तक के समय को 'राजपूत युग' कहा जा सकता है। "
प्रारंभिक राजपूत कुलों में जिन्होंने राजस्थान में अपने-अपने राज्य स्थापित कर लिये थे, उनमें मारवाड़ के प्रतिहार और राठौड़, मेवाड़ के गुहिल, सांभर के चौहान, चित्तौड़ के मौर्य, भीनमाल तथा आबू के चावड़ा, आमेर के कछवाहा, जैसलमेर के भाटी आदि प्रमुख हैं।
शिलालेखों से यह ज्ञात होता है कि छठी शताब्दी में मण्डोर के आस-पास प्रतिहारों का राज्य था और फिर वे ही राज्य आगे चलकर राठौड़ों को प्राप्त हुआ। इसी समय के आस-पास सांभर में चौहान राज्य की स्थापना हुई
और धीरे-धीरे यह राज्य बहुत शक्तिशाली बन गया। छठवीं । शताब्दी में मेवाड़ और आस-पास के भागों में गुहिलों का शासन स्थापित हो गया।
दसवीं शताब्दी में अर्धूणा तथा आबू में परमार शक्तिशाली बन गए।
बारहवीं शताब्दी तथा तेरहवीं शताब्दी के आस-पास तक जालौर, रणथम्भौर और हाड़ौती में चौहानों ने पुनः अपनी शक्ति का संगठन किया और इसी समय उसका कहींकहीं विघटन भी होता रहा।
अठारहवीं शताब्दी में भरतपुर व धौलपुर में जाट राजवंश व 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में टोंक में मुस्लिम सत्ता की स्थापना हुई थी।
भाटी चायड़ चौहान राठौड़ प्रतिहार राठौड़ चाय परमार चौहान प्रतिहार चौहान मौर्य गुहिल मुस्लिम कछवाहा चौहान चाहान जाट
राजपूत कौन थे ?
राजपूत कौन थे ? यह प्रश्न आज भी विवादास्पद है। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग संभवतः सातवीं शताब्दी में ही मिलता है। 'राजपूत' या 'रजपूत' शब्द संस्कृत के 'राजपुत्र' शब्द का विकृत रूप है। इससे पूर्व भी अर्थशास्त्र, हर्षचरित तथा कादंभरी आदि ग्रंथों में इस शब्द का प्रयोग हुआ है। प्रारंभ में राजपूत शब्द का प्रयोग किसी जाति विशेष के लिए न होकर क्षत्रिय राजकुमारों के लिए किया गया था। मुसलमानों के आक्रमणों के पूर्व यहाँ के शासक 'क्षत्रिय' कहलाते थे।
मुसलमानों के आने के बाद इन क्षत्रिय या राजाओं की जाति के लिए 'राजपूत' या 'रजपूत' शब्द काम में लिया जाने लगा। राजवंशीय होने के कारण सत्ताहीन क्षत्रिय भी राजपूत कहलाते थे। अतः स्पष्ट है कि प्राचीनकाल से लेकर मुसलमानों के आक्रमण तक राजपुत्र या रजपूत शब्द का प्रयोग कुलीन क्षत्रिय के अर्थ में किया जाता रहा है।
आठवीं शताब्दी तक इस शब्द का प्रयोग किसी जाति विशेष के लिए न होकर शासक वर्ग के लिए अर्थात् कुलीन क्षत्रियों के लिए किया जाता था। इसके बाद ये राजपुत्र मुसलमानों के समय में अपने राज्य खोकर 'राजपूत' बन गए ।
वैदिक क्षत्रियों की संतान प्रत्येक शासक के दरबारी लोग उसे देव तुल्य ईश्वर द्वारा भेजा गया अथवा देवताओं की संतान बताते हैं। इसी परम्परा के अनुसार राजपूत भी देवताओं की संतान थी। मनुस्मृति में क्षत्रियों की उत्पत्ति ब्रह्मा से बताई गई है।
ऋग्वेद के अनुसार क्षत्रिय ब्रह्मा की बाहों से उत्पन्न हुए थे। इन दोनों ग्रंथों के आधार पर क्षत्रिय का काम निर्बल लोगों की रक्षा करना बताया गया है। चारणों और भाटों ने भी उन्हें ब्रह्मा की संतान बताकर उनकी उत्पत्ति का 'दैविक शक्ति सिद्धांत' का समर्थन किया है।
राजपूत, यदि रामायण और महाभारत काल के राम व कृष्ण के वंशज हैं तो वे भारतीय हैं और वैदिक आर्यों की संतान हैं। कई कथनानुसार राजपूत लोग प्राचीन क्षत्रियों की तरह अश्व तथा अस्त्र की पूजा किया करते थे। प्राचीन आर्यों की भांति यज्ञ और बलि में भी राजपूतों का विश्वास रहा है।
● अग्निकुंड से उत्पन्न- चन्द्रबरदाई ने अपने सुप्रसिद्ध काव्य 'पृथ्वीराज रासो' में राजपूतों की उत्पत्ति अग्निकुंड से बताई है। उसने लिखा है कि आबू पर्वत पर निवास करने वाले विश्वामित्र, गौतम, अगस्त्य तथा अन्य ऋषि धार्मिक अनुष्ठान कर रहे थे, उस समय दैत्य, मांस, हड्डी और मल-मूत्र डालकर उनके यज्ञ को अपवित्र कर देते थे ।
अतः इन दैत्यों का अंत करने के लिए मुनि वशिष्ठ ने उसी यज्ञ कुंड से तीन योद्धा उत्पन्न किये, जो 'परमार', 'चालुक्य' और 'प्रतिहार' कहलाए। किंतु जब ये तीनों भी रक्षा करने में असमर्थ सिद्ध हुए तो मुनि वशिष्ठ ने ‘चौहान' नामक चौथा योद्धा उत्पन्न किया जो हट्टा-कट्टा और हथियार से सुसज्जित था ।
इस योद्धा ने आशापुरी को अपनी देवी मानकर दैत्यों को मार भगाया। इस प्रकार, अग्निकुंड से इन चार राजपूतों का जन्म हुआ। परवर्ती चारणों और भाटों ने क्षत्रियों की इस उत्पत्ति को सत्य मानकर अपने ग्रन्थों में इसी कहानी को दोहराया है।
कर्नल जेम्स टॉड ने भी इस अग्निवंशीय मत को अपने मत विदेशी वंशीय राजपूतों की पुष्टि में मान्यता दी है।
परंतु यदि गहराई से राजपूत उत्पत्ति के 'अग्निवंशीय मत' का विश्लेषण किया जाए तो सिद्ध हो जाता है कि यह मत केवल मात्र कवियों की मानसिक कल्पना का फल है।

कोई इतिहास का विद्यार्थी यह मानने के लिए तैयार नहीं होता है कि अग्नि से भी मनुष्य रूपी योद्धाओं का सृजन किया जा सकता हैं।
वास्तव में इस मत पर विश्वास करना व्यर्थ है, क्योंकि सम्पूर्ण कथानक बनावटी व अव्यावहारिक है। डॉ. ओझा भी इस संबंध में लिखते हैं कि ऐसी दशा में पृथ्वीराज रासो का व -
सहारा लेकर जो विद्वान इन चार राजपूत वंशों को अग्निवंशीय मानते हैं। यह उनकी हठधर्मिता है। श्री जगदीश सिंह गहलोत ने लिखा है कि- 'यह सब पृथ्वीराज रासो के रचयिता के दिमाग की उपज है। आधुनिक खोज के अनुसार अग्निवंशी कोट स्वतंत्र वंश नहीं माना जा सकता।"
पाश्चात्य विद्वान विलियम क्रुक ने लिखा है कि 'अग्निकुंड से तात्पर्य अग्नि द्वारा शुद्धि से है। इस हवन कुंड के द्वारा क्षत्रियों को शुद्ध किया गया था, ताकि वे पुनः हिंदू जाति में प्रविष्ट हो सके।"
ब्राह्मणों से उत्पत्ति - सर्वप्रथम डॉ. भण्डारकर ने राजपूतों का उत्पत्ति किसी विदेशी ब्राह्मण से बताई है । तदनन्तर तो अनेक विद्वानों ने राजपूतों की उत्पत्ति ब्राह्मणों से बता दी।
इस मत की पुष्टि के लिए डॉ. भण्डारकर बिजौलिया-शिलालेख को प्रस्तुत करते हैं, जिसमें चौहानों को 'वत्स गौत्रीय ब्राह्मण' बताया गया है। मंडोर (जोधपुर) के प्रतिहार ब्राह्मण वंश के थे। इनके पूर्वज ब्राह्मण हरिश्चन्द्र तथा उनकी पत्नी भद्रा की सन्तान थी।
इसी प्रकार आबू के प्रतिहार वशिष्ठ ऋषि की सन्तान थे। कुछ प्राचीन साहित्यिक कृतियों में भी, विशेषकर 'पिंगलसूत्र कृति' में भी राजपूतों को ब्राह्मण की सन्तान बताया है। आधुनिक इतिहासकार डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने भी मेवाड़ के गुहिलोतों को नागर जाति के ब्राह्मण गुहेदत्त का वंशज बताया है।
श्री ओझा ने भी इस मत को स्वीकार किया है। मेवाड़ के महाराणा कुंभा ने भी जयदेव के 'गीत गोविन्द' की टीका में यह स्वीकार किया कि गुहिलोत, नागर ब्राह्मण गुहेदत्त की सन्तान हैं। किंतु कुछ अन्य इतिहासकार इस मत को स्वीकार नहीं करते ।
सूर्य व चन्द्रवंशी - दसवीं शताब्दी में चारणों ने जो राजपूतों का इतिहास लिखा, उसमें उन्होंने राजपूतों को सूर्य व चन्द्रवंशी बताया है। ऐसा प्रतीत होता है कि जब दूसरे लोगों ने अपनी उत्पत्ति देवताओं से बताना आरंभ किया तब क्षत्रियों ने भी अपने आपकों रघुवंशी अर्थात् भगवान राम के वंश का कहना आरंभ कर दिया और चारणों ने अपने संरक्षकों को ऊँचा दिखाने के लिए इसे स्वीकार कर लिया।
कुछ शिलालेख भी ऐसे मिले हैं जिसमें राजपूतों को सूर्य व चन्द्रवंशी या रघुवंशी कहा गया है। इस संबंध में 971 ई. का नाथ अभिलेख, 977 ई. का आटपुर लेख, 1285 ई. का आबू शिलालेख तथा 1428 ई. का श्रृंगीऋषि का लेख विशेष उल्लेखनीय है।
इसके अतिरिक्त तेजपाल मंदिर से 1230 ई. में प्राप्त शिलालेख तथा सीकर जिले में हर्षनाथ मंदिर से प्राप्त शिलालेख में चौहानों को सूर्यवंशी कहा गया है।
इस प्रकार ऐसे अनेक शिलालेख प्राप्त हुए है जिनमें राजपूतों को सूर्य व चन्द्रवंशी बताया गया है।
सम्भवतः इसी आधार पर श्री गहलोत ने भी लिखा है कि "वर्तमान राजपूतों के राजवंश वैदिक और पौराणिक काल में राजन्य, उग्र, क्षत्रिय आदि नाम से प्रसिद्ध सूर्य व चन्द्रवंशी क्षत्रियों की ही सन्तान है। ये न तो विदेशी हैं और न विधर्मियों (अनार्यों) के वंशज ही, जैसा कि कुछ यूरोपियन लेखकों ने अनुमान किया है।
डॉ. दशरथ शर्मा ने भी लिखा है कि अग्निकुंड का सिद्धांत राजपूत चारण व भाटों की मानसिक कल्पना थी जिसका एकमात्र आधार अपने संरक्षकों के लिए उच्च कुल की तलाश करना था। राजपूत सूर्यवंशी व चन्द्रवंशी थे । किंतु आज के वैज्ञानिक युग में इस कथन में कितना बल है, इसका
अनुमान तो स्वयं इतिहास के विद्यार्थी ही लगा सकते हैं। विदेशियों की संतान भारत की अधिकांश जातियाँ विदेशों से यहाँ आई थी और फिर यहीं पर अपना स्थायी निवास बनाकर भारतीय धर्म और संस्कृति को अपना लिया।
इसी आधार पर कुछ भारतीय और कुछ विदेशी विद्वानों ने राजपूतों को भी विदेशी मान लिया है।
राजस्थान के इतिहास लेखक कर्नल जेम्स टॉड ने राजपूतों को शक और सिथियन बताया है।
इसके प्रमाण में टॉड ने ऐसे बहुत से प्रचलित रीति-रिवाजों का उल्लेख किया है जो शक जाति से संबंध रखते हैं।
ऐसे रिवाजों में सूर्य की पूजा, सती प्रथा, अश्वमेध यज्ञ, मद्यपान, शस्त्रों और घोड़ों का पूजन आदि हैं।
टॉड अपने इस कथन की पुष्टि में तर्क देते हैं कि विश्व के सभी प्रमुख धर्म चाहे वह बेबीलोनियन हो, या यूनान का, या भारत का, या मूसा का, इन सभी का विकास मध्य एशिया से हुआ था और प्रथम पुरुष को किसी ने 'सुमेरू' कहा, किसी ने 'बेकस' और किसी ने ‘मनु' कहा है।
इन्हीं बातों के आधार पर टॉड का कहना है कि- "इन बातों से सिद्ध होता है कि विश्व के सभी मनुष्यों का मूल स्थान एक ही था और वहीं से ये लोग पूर्व की तरफ आये।" टॉड आगे लिखते है कि यूनानी, शक, हूण, यूची (कुषाण) सभी विदेशी जातियाँ मध्य एशिया से आई थी। इसलिए राजपूत भी मध्य एशिया से आई हुई विदेशी जाति है।
टॉड ने अग्निकुंड की कहानी को स्वीकार कर लिया है तथा इसी आधार पर राजपूतों को विदेशी प्रमाणित करने का प्रयास किया है। उनका मत है कि ये विदेशी जाति छठी शताब्दी के लगभग भारत में प्रविष्ट हुई थी।
इन्हीं विदेशी विजेताओं को, जब वे शासक बन बैठे तो उन्हें अग्नि संस्कार द्वारा पवित्र कर जाति व्यवस्था के अंतर्गत ले लिया गया। चूँकि वे शासन करते थे और यही काम क्षत्रियों का भी था, अतः इन्हें क्षत्रियों की श्रेणी में रखा गया और ये 'राजपूत' कहलाये।
टॉड का कथन है कि राजपूत अपने देवता को रक्त तथा सुरा अर्पित करते थे तथा खून बहाने में ही वे प्रसन्नता अनुभव करते थे। इन बातों से मालूम होता है कि राजपूत उन आर्य हिन्दुओं की सन्तान कभी नहीं हो सकते जो शान्ति में रहना अधिक पसन्द करते थे ।
गुर्जर वंशीय मत प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. भण्डारकर राजपूतों को गुर्जर बताकर विदेशी वंशीय मत पर और बल देते हैं। उनकी मान्यता है कि गुर्जर जाति जो भारतवर्ष के उत्तर-पश्चिम विभाग में फैली हुई थी उसका श्वेत-हूणों के साथ निकट का संबंध था और ये दोनों जातियाँ विदेशी थी ।
भण्डारकर इसकी पुष्टि में बताते है कि पुराणों में गुर्जर और हूणों का वर्णन विदेशियों के रूप में मिलता है। वी. ए. स्मिथ ने लिखा है कि राजपूत जाति आठवीं या नवीं शताब्दी में यकायक प्रकट हुई थी।
इस आधार पर स्मिथ महोदय ने राजपूतों को हूणों की संतान बताया है। उनका कहना है कि विदेशी गर्जरों ने गुजरात को जीतकर उसका नाम अपने नाम पर ही 'गुजरात' रख दिया। उसी प्रकार हूणों भी भारतीय परम्पराओं को अपना कर राजस्थान को अपना घर बना लिया। आज गुर्जर राज्य तो नहीं है पर गुर्जर जाति शेष अवश्य रह गई है। इसी प्रकार हूणों ने भी अपना राज्य समाप्त होने पर 'राजपूत' नाम धारण कर लिया।
कर्नल जेम्स टॉड की पुस्तक के संपादक विलियम क्रुक का कथन है कि राजपूतों के कई वंशजों का उद्भव शक या कुषाण आक्रमणों के समय हुआ था।
उपर्युक्त मतों को स्वीकार नहीं किया जा सकता। प्रथम तो राजपूतों ने स्वयं को कभी विदेशी नहीं बताया है। इसके विपरीत वह अपनी उत्पत्ति सूर्य व चन्द्र से बताते है।
राजपूतों की उत्पत्ति से संबंधित इस विदेशी वंशीय मत को कुछ स्थानीय विद्वानों ने रस्मों-रिवाज तथा सम-सामयिक ऐतिहासिक साहित्य पर अमान्य ठहराने का प्रयत्न किया है।
डॉ. ओझा का कहना है कि राजपूतों तथा विदेशियों के रस्मों-रिवाजों में जो साम्यता टॉड महोदय ने बताई है वह साम्यता विदेशियों से राजपूतों ने प्राप्त नहीं की, वरन् उनकी साम्यता वैदिक तथा पौराणिक समाज और संस्कृति से की जा सकती है। उनका स्पष्ट रूप से कहना है कि शक, कुषाण या हुणों के जिन-जिन रस्मों-रिवाज व परम्पराओं का उल्लेख साम्यता बताने के लिए टॉड ने किया है। वे भारतवर्ष में अतीत काल से ही प्रचलित थी।
टॉड का यह कथन कि आर्य शान्ति में रहना अधिक पसन्द करते थे, यह सत्य है, किंतु आर्य शान्ति के इच्छुक होते हुए भी वे युद्ध को ही अपना धर्म समझते थे तथा मरने-मारने को वे सदा तत्पर रहते थे।
श्री वैद्य महोदय ने डॉ. भण्डारकर के कथन का खण्डन करते हुए उन्हें आर्यों की सन्तान बताया है। उनका कहना है कि कन्नौज के प्रतिहारों ने स्वयं को कभी गुर्जर नहीं कहा। वत्सराज, नागभट्ट जैसे अनेक आर्य नाम हैं। उन्होंने अपने अभिलेखों में स्वयं को सूर्यवंशी कहा है। राजशेखर ने जो उनके समकालिक था, उन्हें 'रघुकुल तिलक' बताया है।
श्री वैद्य महोदय निष्कर्षतः यह प्रमाणित करते हैं कि राजपूत विदेशी जाति के नहीं है, बल्कि भारतीय आर्यों के ही वंशज हैं। निष्कर्ष-उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि राजपूतों की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों का मत एक नहीं है। पृथ्वीराज रासो में वर्णित आधुनिक कुंड की कथा को कल्पना मात्र मानते हैं।
मनु-स्मृतियों में प्रजा की रक्षा करने वाला क्षत्रीय माना गया है। इसी आधार पर राजपूतों को प्राचीन आर्य क्षत्रिय माना गया है। डॉ. ओझा ने राजपूतों को आर्य क्षत्रियों की संतान माना है।
डॉ. दशरथ शर्मा ने राजपूतों को सूर्य व चंद्रवंशी बताते हुये उन्हें आर्यों की संतान और भारत का मूल निवासी माना है।
जगदीश सिंह गहलोत ने राजपूतों को मूलतः भारतीय स्वीकार करते हुए लिखा है कि“स्मिथ आदि का राजपूत जाति की उत्पत्ति को आठवीं शताब्दी के करीब मानना इस कारण से असत्य प्रतीत होता है कि उससे पहले ईसा की सातवीं शताब्दी में ही राजपूताने के कई प्रदेशों में
गुहिल, चावड़ा, यादव आदि राजवंशों के राज्य थे।" इन तर्कों के आधार पर राजपूतों को विदेशियों की संतान मानना उचित प्रतीत नहीं होता है।
विदेशियों से मिलने वाले राजपूतों के कुछ प्रचलित रीति-रिवाजों उन्हें विदेशी सिद्ध करने के लिए प्रर्याप्त नहीं है। लम्बे समय तक एक साथ रहने के कारण इस प्रकार की समानता आ जाना स्वभाविक बात है। निश्चयपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि राजपूत किसकी संतान थे।
डॉ. कानूनगो ने लिखा है कि- ‘‘ अग्नि-कुंड की कहानी इस प्रगति के युग में नहीं चल सकती, उनकी सूर्य अथवा चन्द्र से उत्पत्ति एक काल्पनिक सत्य हो सकती है
राजपूत चाहे किसी भी रूप में जन्में हो लेकिन यह सत्य है कि इतिहास में उन्होंने महाकाव्य काल के क्षत्रियों की परम्पराओं को बनाये रखा है।
Conclusion
इस अध्याय में आप सभी साथियों को Rajputo ki utpaty kaise hui के बारे में हमारे अनुभव से सरल भाषा में notes 📝 तेयार किये है, यदि आपको कोई भी समस्या हो तो आप हमारे comment box मे समस्या लिखकर भेज दे।
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